हरिचरण कुरमी बनाम राज्य (1964) – तथ्य, साक्ष्य और निर्णय का विस्तृत विश्लेषण
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत हरिचरण कुरमी बनाम राज्य (1964 AIR 1184, 1964 SCR (2) 639) का फैसला एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जो भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम की धारा 30 की व्याख्या पर केंद्रित है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि सह-आरोपी द्वारा दिए गए इकबालिया बयान (Confessional Statement) का उपयोग अन्य आरोपी के विरुद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में नहीं किया जा सकता।
1. केस के तथ्य (Facts of the Case)
इस मामले में हरिचरण कुरमी और अन्य सह-आरोपियों पर हत्या का आरोप था। अभियोजन पक्ष का तर्क था कि यह अपराध साजिशन किया गया था, और इसके समर्थन में उन्होंने सह-आरोपी द्वारा पुलिस के समक्ष दिए गए इकबालिया बयान को प्रस्तुत किया।
- पुलिस जांच में हरिचरण कुरमी का कोई प्रत्यक्ष संलिप्तता का प्रमाण नहीं था।
- सह-आरोपी ने अपना इकबालिया बयान दिया, जिसमें उसने अपराध में शामिल होने की बात स्वीकार की और हरिचरण कुरमी को भी इसमें शामिल बताया।
- इस बयान के आधार पर ट्रायल कोर्ट ने हरिचरण कुरमी को दोषी करार दिया, जिसके खिलाफ उन्होंने उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।
2. प्रस्तुत साक्ष्य (Evidence Presented)
अभियोजन पक्ष द्वारा निम्नलिखित साक्ष्य प्रस्तुत किए गए:
- सह-आरोपी का इकबालिया बयान – इसमें उसने स्वयं के अपराध स्वीकार करने के साथ-साथ हरिचरण कुरमी को भी दोषी बताया।
- कोई स्वतंत्र प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था, जो यह साबित करे कि हरिचरण कुरमी ने अपराध किया।
- अप्रत्यक्ष साक्ष्य – अभियोजन पक्ष ने कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रस्तुत किए, लेकिन वे निर्णायक नहीं थे।
3. प्रमुख कानूनी प्रश्न (Legal Issues Raised)
मामले में मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि:
- क्या सह-आरोपी द्वारा दिया गया इकबालिया बयान अन्य आरोपी (हरिचरण कुरमी) के विरुद्ध स्वतंत्र साक्ष्य माना जा सकता है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 30 के तहत क्या सह-आरोपी के इकबालिया बयान को निर्णायक साक्ष्य माना जा सकता है?
4. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (Supreme Court’s Judgment)
(क) धारा 30 की व्याख्या
सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 30 के अनुसार:
- सह-आरोपी द्वारा दिया गया इकबालिया बयान किसी अन्य आरोपी के विरुद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता।
- यह केवल एक सहायक साक्ष्य (Corroborative Evidence) के रूप में ही स्वीकार्य हो सकता है।
- यदि अभियोजन पक्ष के पास अन्य स्वतंत्र साक्ष्य नहीं हैं, तो केवल सह-आरोपी का इकबालिया बयान किसी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है।
(ख) हरिचरण कुरमी के विरुद्ध आरोप खारिज
- अदालत ने कहा कि हरिचरण कुरमी के विरुद्ध अभियोजन पक्ष के पास कोई स्वतंत्र प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था।
- केवल सह-आरोपी के इकबालिया बयान के आधार पर उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
- अतः सर्वोच्च न्यायालय ने हरिचरण कुरमी को निर्दोष घोषित किया और उसकी सजा को रद्द कर दिया।
5. इस निर्णय का कानूनी प्रभाव (Legal Impact of the Judgment)
(क) साक्ष्य अधिनियम की धारा 30 की व्याख्या पर प्रभाव
- सह-आरोपी का इकबालिया बयान केवल सहायक साक्ष्य के रूप में ही स्वीकार्य होगा।
- यदि अभियोजन पक्ष के पास कोई अन्य स्वतंत्र साक्ष्य नहीं है, तो केवल इस बयान के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
- इस निर्णय ने अभियुक्तों को गलत तरीके से दोषी ठहराए जाने से बचाने का मार्ग प्रशस्त किया।
(ख) अन्य मामलों पर प्रभाव
- यह फैसला अनेक बाद के मामलों में उद्धृत किया गया, खासकर तब जब अभियोजन केवल सह-आरोपी के इकबालिया बयान पर निर्भर रहता था।
- यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) की अवधारणा को मजबूत करता है।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
हरिचरण कुरमी बनाम राज्य (1964) का यह निर्णय भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत एक महत्वपूर्ण मिसाल है। इस फैसले ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि:
- सह-आरोपी का इकबालिया बयान किसी अन्य आरोपी के विरुद्ध स्वतंत्र प्रमाण के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता।
- ऐसे बयान केवल सहायक साक्ष्य के रूप में ही स्वीकार्य होते हैं, और दोषसिद्धि के लिए अन्य स्वतंत्र प्रमाण आवश्यक होते हैं।
- इस फैसले ने अभियोजन प्रक्रिया में निष्पक्षता और साक्ष्य की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई।
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Reviewed by Dr. Ashish Shrivastava
on
February 15, 2025
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