मृत्युपूर्व कथन (Dying Declaration) – विस्तृत विश्लेषण
परिचय
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 32(1) के अंतर्गत मृत्युपूर्व कथन (Dying Declaration) एक महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत है। यह वह कथन होता है जो किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मृत्यु से पहले दिया जाता है, जब उसे यह विश्वास हो कि वह मृत्यु के कगार पर है। यह कथन न्यायालय में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होता है, क्योंकि यह माना जाता है कि मृत्यु के निकट व्यक्ति झूठ नहीं बोलेगा।
मृत्युपूर्व कथन की परिभाषा
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 32(1) के अनुसार:
"वह कथन, जो किसी व्यक्ति द्वारा अपने मृत्यु-शय्या पर दिए गए हों और जो उस व्यक्ति की मृत्यु के कारण से संबंधित हो, उसे न्यायालय में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।"
मृत्युपूर्व कथन का कानूनी आधार
मृत्युपूर्व कथन को साक्ष्य के रूप में स्वीकार करने के पीछे निम्नलिखित कानूनी सिद्धांत हैं:
- "Nemo moriturus praesumitur mentire" – इसका अर्थ है, "कोई व्यक्ति मरते समय झूठ नहीं बोलता।"
- "Leterm Mortem" – यह सिद्धांत कहता है कि जो व्यक्ति मृत्यु की स्थिति में होता है, वह सत्य बोलता है क्योंकि उसे कोई व्यक्तिगत लाभ प्राप्त नहीं होता।
- विशेष स्थिति में साक्ष्य अधिनियम की धारा 60 का अपवाद – सामान्यतः साक्ष्य मौखिक और प्रत्यक्ष होना चाहिए, लेकिन धारा 32(1) के अंतर्गत मृत्युपूर्व कथन को अपवादस्वरूप स्वीकार किया जाता है।
मृत्युपूर्व कथन की विशेषताएँ
- मृत्यु से पहले दिया गया होना चाहिए – कथन किसी व्यक्ति की मृत्यु से पहले दिया गया हो और उसकी मृत्यु उसी कारण से हुई हो।
- स्वेच्छा से दिया गया हो – किसी दबाव, जबरदस्ती या यातना के कारण दिया गया कथन स्वीकार्य नहीं होता।
- व्यक्ति को मृत्यु का निकट अनुभव हो – कथन देने वाले को यह ज्ञात होना चाहिए कि वह जल्द ही मरने वाला है।
- स्पष्ट और ठोस होना चाहिए – कथन अस्पष्ट या संदिग्ध नहीं होना चाहिए।
- अनुचित देरी नहीं होनी चाहिए – मृत्युपूर्व कथन को जल्द से जल्द दर्ज किया जाना चाहिए।
मृत्युपूर्व कथन के प्रकार
- मौखिक (Oral Dying Declaration) – जब पीड़ित व्यक्ति मौखिक रूप से पुलिस अधिकारी, डॉक्टर, मजिस्ट्रेट या किसी अन्य व्यक्ति को बयान देता है।
- लिखित (Written Dying Declaration) – जब मृतक व्यक्ति स्वयं अपने हाथ से या किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से लिखित में अपना बयान देता है।
- संकेतों द्वारा (Gestures and Signs) – यदि व्यक्ति बोलने में असमर्थ हो, तो इशारों द्वारा दिए गए संकेत भी स्वीकार्य हो सकते हैं। (जैसे सिर हिलाकर "हाँ" या "नहीं" करना)।
- वीडियो रिकॉर्डिंग (Video Dying Declaration) – यदि किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से मृत्युपूर्व कथन रिकॉर्ड किया जाता है, तो उसे भी साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
मृत्युपूर्व कथन दर्ज करने की प्रक्रिया
- मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया जाना सर्वोत्तम – न्यायालय प्राथमिकता देता है कि मृत्युपूर्व कथन न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया जाए।
- डॉक्टर की उपस्थिति – यदि अस्पताल में बयान लिया जा रहा हो, तो डॉक्टर की उपस्थिति आवश्यक होती है।
- सवाल-जवाब स्पष्ट होने चाहिए – यदि पुलिस या मजिस्ट्रेट प्रश्न पूछ रहे हैं, तो उत्तर सीधा और स्पष्ट होना चाहिए।
- पीड़ित की मानसिक स्थिति की पुष्टि – डॉक्टर यह प्रमाणित करता है कि बयान देते समय व्यक्ति की मानसिक स्थिति ठीक थी।
- स्वेच्छा से दिया गया हो – अगर यह साबित हो जाए कि कथन दबाव में दिया गया था, तो इसे न्यायालय अस्वीकार कर सकता है।
मृत्युपूर्व कथन की साक्ष्यात्मक मूल्य
न्यायालय में मृत्युपूर्व कथन को निम्नलिखित स्थितियों में मान्यता दी जाती है:
- यदि यह बिना किसी संदेह के स्पष्ट हो – कथन सीधा, सुसंगत और तर्कसंगत होना चाहिए।
- अगर अन्य साक्ष्यों से इसकी पुष्टि होती हो – न्यायालय इसे अन्य साक्ष्यों के साथ मिलाकर परखता है।
- यदि मृत्यु का कारण उसी कथन से संबंधित हो – कथन और मृत्यु के बीच तार्किक संबंध होना चाहिए।
किन परिस्थितियों में मृत्युपूर्व कथन अमान्य हो सकता है?
- यदि कथन देने वाला मानसिक रूप से अक्षम हो – यदि व्यक्ति नशे में हो या होश में न हो।
- यदि कथन अस्पष्ट या विरोधाभासी हो – अगर बयान में विरोधाभास है तो न्यायालय इसे अस्वीकार कर सकता है।
- यदि मृत्यु का कारण कथन से मेल न खाता हो – कथन और मृत्यु के बीच तार्किक संबंध नहीं हो तो इसे अस्वीकार किया जा सकता है।
- यदि कथन दबाव या प्रताड़ना में दिया गया हो – दबाव में दिया गया कथन वैध नहीं होता।
मृत्युपूर्व कथन से जुड़े महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय
1. कुतुबुद्दीन बनाम राज्य (1983) SC
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि मृत्युपूर्व कथन मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया है और इसमें कोई संदेह नहीं है, तो इसे दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त माना जाएगा।
2. खुशाल राव बनाम महाराष्ट्र राज्य (1958) SC
इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मृत्युपूर्व कथन को अन्य साक्ष्यों की तरह सावधानीपूर्वक जांचा जाना चाहिए, और केवल इसी आधार पर दोषसिद्धि नहीं की जानी चाहिए जब तक कि यह पूर्णतः विश्वसनीय न हो।
3. पन्नालाल बनाम राज्य (1959) SC
इस मामले में कहा गया कि यदि मृत्युपूर्व कथन संदेहास्पद हो या मृत्यु से असंबंधित हो, तो इसे न्यायालय अस्वीकार कर सकता है।
निष्कर्ष
मृत्युपूर्व कथन भारतीय न्याय व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह एक अपवाद है जिसमें "सुनवाई कहे-सुने" (Hearsay) साक्ष्य को स्वीकार किया जाता है। हालांकि, न्यायालय इसे सावधानीपूर्वक परखता है और केवल स्पष्ट, ठोस तथा आत्मनिर्भर मृत्युपूर्व कथन को ही स्वीकार करता है।
महत्वपूर्ण बिंदु संक्षेप में:
✔ मृत्युपूर्व कथन भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत आता है।
✔ यह व्यक्ति की मृत्यु के पूर्व दिया गया बयान होता है, जिसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाता है।
✔ इसे मजिस्ट्रेट, डॉक्टर, पुलिस अधिकारी या विश्वसनीय गवाह के सामने दर्ज किया जाना चाहिए।
✔ न्यायालय इस कथन की विश्वसनीयता की पूरी जांच करता है।
✔ यदि कथन स्पष्ट, तार्किक और मृत्यु से संबंधित है, तो इसे दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।
इस प्रकार, मृत्युपूर्व कथन न्याय प्रक्रिया में सत्य और न्याय की खोज का एक प्रभावी साधन है।
Reviewed by Dr. Ashish Shrivastava
on
March 11, 2025
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