प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य में अंतर

 

प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य में अंतर तथा किन परिस्थितियों में दस्तावेजों का द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है?



न्यायिक प्रक्रिया में साक्ष्य (Evidence) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। जब किसी दस्तावेज़ (Document) को अदालत में प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे प्रमाणित करने के लिए प्राथमिक या द्वितीयक साक्ष्य की आवश्यकता होती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) के तहत, दस्तावेजी साक्ष्य को प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence) और द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence) में विभाजित किया गया है।

प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence) क्या है?

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 62 के अनुसार, प्राथमिक साक्ष्य वह मूल दस्तावेज होता है जिसे न्यायालय में प्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत किया जाता है। यदि कोई दस्तावेज़ एक से अधिक प्रतियों में तैयार किया गया हो और वे सभी समान रूप से मूल हों, तो उन सभी को प्राथमिक साक्ष्य माना जाएगा।

प्राथमिक साक्ष्य के उदाहरण:

  1. मूल अनुबंध पत्र (Original Contract Paper) – यदि दो पक्षों के बीच एक लिखित अनुबंध हुआ है, तो उसके मूल दस्तावेज को प्राथमिक साक्ष्य माना जाएगा।
  2. मूल वसीयतनामा (Original Will) – यदि किसी व्यक्ति ने वसीयतनामा तैयार किया है, तो उसका मूल दस्तावेज प्राथमिक साक्ष्य होगा।
  3. मूल बिक्री विलेख (Original Sale Deed) – किसी संपत्ति की बिक्री से संबंधित मूल विलेख (Sale Deed) प्राथमिक साक्ष्य मानी जाएगी।
  4. कंप्यूटर द्वारा उत्पन्न मूल इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड (Original Computer-Generated Record) – जैसे ईमेल, डिजिटल अनुबंध, आदि।

द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence) क्या है?

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 63 के अनुसार, जब किसी दस्तावेज़ का मूल (Original) न्यायालय में उपलब्ध नहीं होता, तो उसकी प्रमाणित प्रतिलिपि (Certified Copy), फ़ोटोकॉपी, टाइप की गई प्रति या अन्य विश्वसनीय स्रोतों से प्राप्त विवरण को द्वितीयक साक्ष्य माना जाता है।

द्वितीयक साक्ष्य के प्रकार (Section 63 के अनुसार):

  1. मूल दस्तावेज़ की प्रमाणित प्रतिलिपि (Certified Copy of the Original Document) – यह आमतौर पर सरकारी दस्तावेजों के मामलों में दी जाती है।
  2. फोटोकॉपी या कार्बन कॉपी (Photocopy or Carbon Copy) – यदि मूल दस्तावेज अनुपलब्ध है, तो उसकी फोटोकॉपी या कार्बन कॉपी को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
  3. प्रमाणित टाइप की गई या हस्तलिखित प्रतिलिपि (Typed or Handwritten Copy) – यदि यह विश्वसनीय स्रोत से प्राप्त हो।
  4. मौखिक साक्ष्य (Oral Evidence) – किसी व्यक्ति द्वारा यह गवाही दी जाए कि उसने मूल दस्तावेज को देखा था और वह उसके बारे में जानकारी दे सकता है।
  5. इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड (Electronic Record) – यदि उचित प्रमाणन के साथ प्रस्तुत किया जाए, तो कंप्यूटर प्रिंटआउट या अन्य डिजिटल दस्तावेज़ भी द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किए जा सकते हैं।

प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य में अंतर
आधार प्राथमिक साक्ष्य द्वितीयक साक्ष्य
परिभाषा मूल दस्तावेज जिसे प्रत्यक्ष रूप से न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है। जब मूल दस्तावेज अनुपलब्ध होता है, तब उसकी प्रमाणित प्रतिलिपि, फोटोकॉपी, टाइप की गई प्रति आदि को प्रस्तुत किया जाता है।
प्रभाव सबसे मजबूत और सर्वोत्तम प्रमाण माना जाता है। जब प्राथमिक साक्ष्य अनुपलब्ध होता है, तब इसका उपयोग किया जाता है।
स्वीकार्यता न्यायालय में बिना किसी अतिरिक्त शर्त के स्वीकार्य होता है। केवल तभी स्वीकार्य होता है जब यह धारा 65 में उल्लिखित परिस्थितियों में दिया जाए।
उदाहरण मूल अनुबंध, मूल वसीयतनामा, मूल बिक्री विलेख आदि। प्रमाणित प्रतिलिपि, फोटोकॉपी, मौखिक साक्ष्य, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड आदि।


किन परिस्थितियों में द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है?

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65 में उन परिस्थितियों को सूचीबद्ध किया गया है जिनमें द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है:

1. जब मूल दस्तावेज न्यायालय की अभिरक्षा में नहीं है या नष्ट हो गया है

यदि मूल दस्तावेज़ खो गया हो, चोरी हो गया हो या नष्ट हो गया हो, और इसे पुनः प्राप्त करना संभव न हो, तो उसकी प्रमाणित प्रतिलिपि को न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है।

उदाहरण:

  • किसी पुरानी संपत्ति के दस्तावेज़ खो गए हैं, लेकिन उसकी प्रमाणित प्रतिलिपि नगरपालिका कार्यालय में मौजूद है।
  • किसी आगजनी में किसी कंपनी के मूल रिकॉर्ड जल गए, तो उनकी डिजिटल कॉपी साक्ष्य के रूप में दी जा सकती है।

2. जब मूल दस्तावेज न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर है

यदि कोई दस्तावेज़ किसी ऐसे स्थान पर है जहां से उसे लाना संभव नहीं है, तो उसकी प्रमाणित प्रतिलिपि स्वीकार की जा सकती है।

उदाहरण:

  • यदि किसी व्यक्ति का संपत्ति रिकॉर्ड अमेरिका में रखा गया है, तो उसकी प्रमाणित डिजिटल कॉपी न्यायालय में दी जा सकती है।

3. जब विरोधी पक्ष जानबूझकर मूल दस्तावेज़ प्रस्तुत नहीं कर रहा हो

यदि कोई पक्ष जिसके पास मूल दस्तावेज़ है, उसे प्रस्तुत करने से इनकार कर देता है, तो दूसरी पार्टी द्वितीयक साक्ष्य प्रस्तुत कर सकती है।

उदाहरण:

  • यदि किसी कंपनी के अनुबंध का मूल दस्तावेज़ दूसरी पार्टी के पास है और वह इसे कोर्ट में नहीं लाती, तो उसकी कॉपी को प्रमाण के रूप में पेश किया जा सकता है।

4. जब दस्तावेज़ एक सार्वजनिक रिकॉर्ड हो

यदि किसी दस्तावेज़ की मूल प्रति सरकारी कार्यालय में सुरक्षित है, तो उसकी प्रमाणित प्रति को न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है।

उदाहरण:

  • जन्म प्रमाणपत्र, मृत्यु प्रमाणपत्र, भूमि रिकॉर्ड की प्रमाणित प्रतिलिपि।

5. जब दस्तावेज़ किसी अन्य व्यक्ति के कब्जे में हो और वह इसे प्रस्तुत करने में असमर्थ हो

यदि कोई तीसरा पक्ष जिसके पास दस्तावेज़ है, उसे प्रस्तुत करने में असमर्थ है, तो उसकी प्रमाणित प्रतिलिपि स्वीकार की जा सकती है।

उदाहरण:

  • यदि किसी बैंक के पास ऋण अनुबंध की मूल प्रति है और बैंक इसे देने में असमर्थ है, तो उसकी प्रमाणित प्रतिलिपि प्रस्तुत की जा सकती है।

निष्कर्ष

प्राथमिक साक्ष्य न्यायालय में सर्वोत्तम और सबसे विश्वसनीय साक्ष्य होता है, लेकिन कई परिस्थितियों में द्वितीयक साक्ष्य को भी स्वीकार किया जाता है। द्वितीयक साक्ष्य केवल उन्हीं मामलों में दिया जा सकता है जब मूल दस्तावेज उपलब्ध न हो या उसे प्राप्त करना संभव न हो। न्यायालय द्वितीयक साक्ष्य की विश्वसनीयता को परखने के बाद ही उसे स्वीकार करता है। इसलिए, न्यायिक प्रक्रिया में दस्तावेजी साक्ष्य को प्रमाणित करने के लिए प्राथमिक साक्ष्य को प्राथमिकता दी जाती है, और द्वितीयक साक्ष्य केवल अपवादस्वरूप स्वीकार किया जाता है।

प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य में अंतर प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य में अंतर Reviewed by Dr. Ashish Shrivastava on March 04, 2025 Rating: 5

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